ज़िम्मेदारियों के शहर में प्रेम के
गुम होते ही, हम तलाशने लगते हैं
खुद को,
ढूंढते हुए खुद की परछाई जैसे ही कोई लम्हा,
चूमता है माथे को सुकून, आंखों में बैठती है
वैसे ही फिर कोई ज़िम्मेदारी आ गले से लगती है।
और बस फिर ये शहर
तुम्हारी यादें और सफर..
कटने लगती है ज़िन्दगी,
और जिंदगी से हम भी,
धीमे धीमे. कटने लगते हैं..
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